प्रदूषित हवा वैसे तो हमारे इम्यूनिटी सिस्टम को बहुत बुरी तरह से प्रभावित करती है, लेकिन इसका सबसे ज्यादा असर हमारी आखों पर हो रहा है। जी हां, बढ़ते प्रदूषण और दूषित होती हवा के चलते लोगों में काले मोतियाबिंद या ग्लूकोमा का जोखिम ज्यादा बढ़ा है। जरनल इन्वेस्टिगेटिव ऑपथैल्मोलॉजी एंड विजुअल साइंस में प्रकाशित ताजा रिसर्च के मुताबिक इस समस्या से व्यक्ति अंधा भी हो सकता है। रिसर्च के दौरान अध्ययनकर्ताओं ने पाया कि जो लोग साफ हवा में रहते हैं उनकी तुलना में प्रदूषित हवा में रहने वाले लोगों में काले मोतियाबिंद का खतरा कम से कम 6 प्रतिशत अधिक है।
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क्या है काला मोतियाबिंद?
काला मोतियाबिंद को ग्लूकोमा भी कहा जाता है। काला मोतियाबिंद आंखों में होने वाली एक गंभीर समस्या है। दरअसल हमारी आंखों में ऑप्टिक नर्व होती हैं, जो किसी भी चीज की तस्वीर को दिमाग तक पहुंचाती है। काले मोतियाबिंद के दौरान हमारी आंखों पर अत्यधिक दबाव पड़ता है और लगातार दबाव के चलते ऑप्टिक नर्व नष्ट हो सकती है। इस दबाव को इंट्रा-ऑक्युलर प्रेशर कहते हैं। अगर यह समस्या अधिक बढ़ जाए तो एक समय पर आकर आंखों की रोशनी भी जा सकती है।
क्या कहती है रिसर्च?
यह रिसर्च मूरफिल्ड्स आई हॉस्पिटल, यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन, कार्डिफ यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी ऑफ ब्रिस्टोल के शोधकर्ताओं ने की है। रिसर्च के दौरान शोधकर्ताओं ने बताया कि ग्लूकोमा एक न्यूरोडीजेनेरेटिव (मस्तिष्क को प्रभावित करना) बीमारी है और इससे व्यक्ति पूरी तरह से अंधा भी हो सकता है, दुनियाभर में 6 करोड़ लोग ग्लूकोमा से जूझ रहे हैं। अध्ययनकर्ताओं को पता चला कि कम प्रदूषित हवा में रहने वाले लोगों की अपेक्षा 25 प्रतिशत बहुत अधिक प्रदूषित इलाके में रहने वाले लोगों में ग्लूकोमा का जोखिम ज्यादा है।
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किस तरह की रिसर्च थी यह?
यह एक प्रकार का सह-अध्ययन था, जिसका उदेश्य यूके बायोबैंक रिसर्च के आंकड़ों को जुटना था। रिसर्च के दौरान लोगों से क्लीनिकल असाइनमेंट लिए गए, साथ ही उनसे उनकी जीवनशैली और स्वास्थ्य से जुड़े कुछ सवाल पूछे गए।
- शोधकर्ताओं ने एक समय में ही वायु प्रदूषण से होने वाले प्रभावों का विश्लेषण किया।
- हालांकि इस अध्ययन की एक मुख्य सीमा निर्धारित थी, इसलिए यह वायु प्रदूषण और काला मोतियाबिंद (ग्लूकोमा) के बीच प्रत्यक्ष कारण और प्रभाव को साबित नहीं कर सकता है।
अध्ययन में कितने लोगों को किया गया शामिल?
यूके बायोबैंक की इस रिसर्च में 40 से 69 साल के करीब 5,02,656 वयस्क लोगों को शामिल किया गया था। साल 2006 से 2010 के बीच इस संस्था को पूरे देश में बने 22 केंद्रों पर लोगों से क्लीनिक असाइनमेंट मिले। इस दौरान उन्होंने स्वास्थ्य से जुड़ी प्रश्नावली को भी पूरा किया, जिसमें उनसे यह भी पूछा गया था कि क्या कभी डॉक्टर ने बताया है कि आपको ग्लूकोमा है।
- इस दौरान 9 केंद्रों पर प्रतिभागियों के आंखों का टेस्ट भी कराया गया
- टेस्ट के दौरान लोगों की आंख के अंदर दबाव को मापा गया (ये टेस्ट ग्लूकोमा के स्तर को जानने के लिए था) और आंख के पीछे तंत्रिका तंतुओं (नर्व फाइबर) की मोटाई (इसे गैंग्लियन सेल-इनर प्लेक्सिफॉर्म लेयर और जीसीआईपीएल भी कहते हैं) की भी जांच की गई।
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क्या था जांच का परिणाम?
जांच के बाद आए सैंपल के जरिए 5,02,656 वयस्कों में से करीब 1.8 प्रतिशत लोगों (2,040) में ग्लूकोमा या काले मोतियाबिंद की पहचान हुई। जांच में शामिल लोगों के हर एक चौथाई लोगों मे पीएम 2.5 प्रदूषक तत्वों के करीब रहने के क्रम में ग्लूकोमा से ग्रसित होने की आशंका 6 फीसदी बढ़ गई।
- शोधकर्ताओं ने पाया कि पीएम 2.5 पीएम की अधिकता का संबंध लोगों की आंख में पतली तंत्रिका तंतु (नर्व फाइबर) से है।
- हालांकि, पीएम 2.5 और आंखों के अंदर के दबाव के बीच कोई सीधा संबंध नहीं पाया गया।
अध्ययनकर्ताओं निष्कर्ष पर पहुंचे कि पीएम 2.5 प्रदूषक तत्वों के ज्यादा करीब रहने से ग्लूकोमा का खतरा बढ़ता है। यह अध्ययन वायु प्रदूषण और ग्लूकोमा (काला मोतियाबिंद) के बीच संबंध की जांच के लिए किया गया था। शोधकर्ताओं ने बताया कि डब्ल्यूएचओ भी वायु प्रदूषण को श्वसन संबंधी बीमारियों के साथ ही संभवत: हृदय रोग और न्यूरोलॉजिकल की स्थिति के लिए भी जिम्मेवार मानता है।