फाइलेरिया एक संक्रमित रोग है जो परजीवी गोलकृमि (राउंडवर्म) के कारण होता है। वैसे तो ये बीमारी ज्यादा खतरनाक नहीं है लेकिन इसके कारण कई गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती है। ये बीमारी उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में ज्यादा होती है।
फाइलेरिया संक्रमण की बीमारी हाथीपांव का रूप ले सकती है जिसमें बाहरी जननांग, हाथ या पांव या शरीर के किसी भी अंग का आकार बढ़ने लगता है। ये रोग एक या दो नेमाटोड्स (सूत्रकृमि या गोलकृमि) के कारण हो सकता है एवं इसे वुचेरेरिया बैनक्रॉफ्टी और ब्रुगिया मलाई के नाम से जाना जाता है।
परजीवी त्वचा में अपने आप या मच्छर के काटने पर घुस सकते हैं। फाइलेरिया के शुरुआती चरण में सिरदर्द, ठंड लगना, बुखार और त्वचा पर घाव जैसे लक्षण सामने आते हैं। इस रोग की शुरुआत में कभी-कभी किसी व्यक्ति पर कोई भी लक्षण देखने को नहीं मिलता है।
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अगर फाइलेरिया का समय पर इलाज न किया जाए तो इस रोग के बढ़ने का खतरा रहता है एवं इसमें पैरों में सूजन, (हाथीपांव), बाहरी जननांगों या शरीर के अन्य हिस्सों में सूजन और लसीका के प्रवाह में रुकावट उत्पन्न होती है।
आयुर्वेद में फाइलेरिया के इलाज के लिए विभिन्न परजीवी रोधी और कृमिरोधी जड़ी बूटियों का उल्लेख मिलता है। इन जड़ी बूटियों में कुटज (कुड़ची), विडंग (फॉल्स काली मिर्च), हरीतकी (हरड़), गुडुची (गिलोय), मंजिष्ठा शामिल है।
कुछ हर्बल मिश्रण जैसे कि नित्यानंद रस और सप्तांग गुग्गुल फाइलेरिया के इलाज में असरकारी हैं। इसके अलावा कुछ चिकित्साएं जैसे कि गर्म लेप (शरीर के प्रभावित हिस्से पर औषधि लगाना) और वमन (औषधियों से उल्टी करवाने की विधि) फाइलेरिया के लक्षणों में सुधार लाने में प्रभावकारी है।
फाइलेरिया के विशेष उपचार के साथ आयुर्वेद में आहार में जरूरी बदलाव और विशेषत: बुखार में पर्याप्त आराम करने की सलाह दी गई है।