फाइलेरिया एक संक्रामक बीमारी है जो कि फिलेरी वुचेरेरिया बैंक्रॉफ्टी और ब्रुगिया मलेई नामक परजीवी से होती है। इसे हाथीपांव भी कहा जाता है। ये बीमारी सबसे ज्यादा लसीका प्रणाली (लिम्फेटिक फाइलेरिया या हाथीपांव) को प्रभावित करती है, हालांकि इसका असर त्वचा (सब-क्यूटेनियस फाइलेरिया) पर भी पड़ सकता है।
लिंफेटिक फाइलेरिया क्यूलेस क्यूनक्यूफैसिआटस और मैनसोनिया एनुलिफेरा नामक मच्छरों से फैलता है। जब संक्रमित व्यक्ति को मच्छर काटता है तो वो उस व्यक्ति के खून से परजीवी का लार्वा ले लेता है। जब यही मच्छर किसी स्वस्थ व्यक्ति को काटता है तो उस व्यक्ति की त्वचा में संक्रमित व्यक्ति से लिया गया लार्वा पहुंच जाता है जिससे बीमारी फैलती है।
शरीर में प्रवेश करने के बाद लार्वा तेजी से लसीका प्रणाली में संचारित होता है और बड़े कीड़े बनाने के लिए परिपक्व होता है। ये बड़े कीड़े सैकड़ों नए लार्वा बनाते हैं जो व्यक्ति के खून और लसीका प्रणाली में संचारित होते हैं।
लसीका प्रणाली में रक्त वाहिकाओं की तरह ही वाहिकाओं का नेटवर्क होता है, लेकिन इनमें खून की बजाय पीले-सफेद रंग का तरल पदार्थ होता है जिसे लिम्फ कहते हैं। ये लिम्फ सफेद रक्त कोशिकाओं से युक्त होता है जो कि शरीर को हानिकारक जीवों से बचाता है।
चूंकि, परजीवी लसीका प्रणाली को नुकसान पहुंचाते हैं इसलिए अधिकतर लोगों में कभी लक्षण विकसित ही नहीं होते हैं। कुछ लोगों में लसीका प्रणाली में फ्लूइड (तरल पदार्थ) जमने के कारण लिम्फेडेमा होता है, जिसकी वजह से सूजन होती है। ये सूजन खासतौर पर टांगों और कभी-कभी बांहों, स्तनों और जननांग में होती है।
सूजन और बार-बार संक्रमण से लड़ने में लसीका प्रणाली की क्षमता कम हो जाती है, जिसके कारण त्वचा सख्त और मोटी हो जाती है। इस स्थिति को हाथीपांव कहा जाता है। पुरुषों में भी हाइड्रोसील यानि अंडकोष की थैली में सूजन हो सकती है।
फाइलेरिया में एडेनो-लिम्फैनजाइटिस का गंभीर रूप लेना भी आम बात है। ऐसा लसीका प्रणाली को नुकसान पहुंचने और सूजन के कारण होता है। इसकी वजह से लसीका वाहिनी शोथ (लिम्फैनजाइटिस) और लसीका पर्व शोथ (लिम्फैडेनाइटिस) होता है।
इससे टांग में बार-बार बैक्टीरियल इंफेक्शन का खतरा रहता है। आमतौर पर, रोगजनक बैक्टीरिया पैर की उंगलियों में घाव के जरिए लसीका प्रणाली तक पहुंचता है। इसकी वजह से लालिमा, सूजन, दर्द, बुखार और ठंड लगने की समस्या होती है।
लिम्फेटिक फाइलेरिया का निदान खून की जांच से किया जाता है जिसमें माइक्रोफाइलेरिया (लार्वा) की पहचान की जाती है। लसीका वाहिकाओं में बड़े कीडों को देखने के लिए अल्ट्रासोनोग्राफी और एंटीबॉडीज के लिए ब्लड टेस्ट किए जाते हैं।
फाइलेरिया इंफेक्शन ट्रॉपिकल पल्मोनरी इओसिनोफिलिया सिंड्रोम भी कर सकता है, जिसमें इओसिनोफिल (बीमारी से लड़ने वाली सफेद रक्त कोशिकाएं) की संख्या बढ़ जाती है और व्यक्ति को खांसी, घरघराहट की आवाज आना और सांस लेने में दिक्कत होती है। इसके साथ ही इम्युनोग्लोबुलिन ई का स्तर भी बढ़ जाता है।
फाइलेरिया के होम्योपैथिक इलाज में गंभीर स्थिति से राहत पाने और जटिलताओं से बचने पर काम किया जाता है। लंबे समय तक उपचार लेने से बीमारी की गंभीरता और आवृत्ति में कमी आती है।
फाइलेरिया के इलाज में इस्तेमाल होने वाली होम्योपैथिक दवाओं में ऐनाकार्डियम ओरिएंटल, एपिस मेलिफिका, आर्सेनिकम एल्बम, ग्रेफाइट, हाइड्रोकोटाइल एशिआटिक, आयोडियम और रुस टॉक्सिकोडेंड्रोन उपयोगी हैं।
होम्योपैथी चिकित्सक बीमारी के लक्षणों के साथ-साथ मरीज के व्यक्तित्व और मानसिक स्थिति के आधार पर सही दवा और उचित खुराक चुनते हैं।